Wednesday 30 March 2011

स्वस्थ जीवन: ग्लूकोमा से आँखों को बचाए, कैसे?

स्वस्थ जीवन: ग्लूकोमा से आँखों को बचाए, कैसे?: "NAV BHARAT TIMES के अनुसार आप भी सावधान होकर इससे सीख ले और बचे, समय से इलाज कराये.छुपकर नजर छीनता है ग्लूकोमा 13 Mar 2011, 1021 hr..."

स्वस्थ जीवन: खून यानि रक्त कब और कैसे?

स्वस्थ जीवन: खून यानि रक्त कब और कैसे?: "यानि रक्त की जब भी आवश्यकता हो तो NAV BHARAT TIMES में प्रकाशित इन सावधानियो को बरते और जीवन को विषाक्त होने से बचाए. जब जरूरत हो खून चढ़ाने..."

खून यानि रक्त कब और कैसे?

यानि रक्त की जब भी आवश्यकता हो तो NAV BHARAT TIMES में प्रकाशित इन सावधानियो को बरते और जीवन को विषाक्त होने से बचाए.
जब जरूरत हो खून चढ़ाने की !
नवभारत टाइम्स 27 Mar 2011, 0937 hrs IST,  
तमाम बीमारियों और ऑपरेशनों में ब्लड चढ़ाने की जरूरत पड़ जाती है। ऐसे में मरीज के घरवालों के सामने असली चुनौती यह होती है कि वे सेफ ब्लड का इंतजाम कहां से करें। साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि मरीज को ब्लड चढ़ाने का प्रॉसेस ठीक तरीके से पूरा हो और उसमें पूरी तरह से सावधानी बरती जाए। अगर ब्लड की जरूरत पड़ जाए तो किन बातों का रखें ध्यान, एक्सपर्ट्स से बात करके बता रहे हैं नरेश तनेजा...
अगर किसी मरीज को ब्लड या उसके दूसरे कम्पोनेंट्स की जरूरत है, तो सबसे पहले डोनर का इंतजाम करना पड़ता है, जिससे ब्लड के बदले ब्लड दिया जा सके। इसे रिप्लेसमेंट डोनेशन कहते हैं। वैसे, लॉयंस व रोटरी ब्लड बैंक सिर्फ प्रॉसेसिंग चार्ज लेकर बिना रिप्लेसमेंट के ही ब्लड दे देते हैं। इमर्जेंसी में दूसरे ब्लड बैंक भी बिना डोनेशन के ही ब्लड दे देते हैं। 


तरीका क्या है
-डॉक्टर के ब्लड की जरूरत बताने के बाद अस्पताल में ही किसी ब्लड बैंक का फॉर्म मिल जाता है। इस फॉर्म को लेकर मरीज के घरवाले डॉक्टर से भरवा लें। फॉर्म पूरा भरा होना चाहिए। इस फॉर्म में मरीज की उम्र, सेक्स, ब्लड ग्रुप, जो ब्लड ग्रुप चाहिए के अलावा और भी कई जानकारियां होती हैं। इस फॉर्म पर डॉक्टर के साइन और अस्पताल की मुहर लगवा लें।

- इसके दौरान मरीज के ब्लड का सैंपल लिया जाता है। यह सैंपल दो ट्यूबों में लिया जाना चाहिए। एक प्लेन ट्यूब में 3 एमएल और दूसरी ईडीटीए केमिकल वाली ट्यूब में 2 से 3 एमएल। दो ट्यूब इसलिए ली जाती हैं, ताकि जांच में समस्या होने पर दोबारा सैंपल लेने न भेजना पड़े। ब्लड बैंक सात दिन तक मरीज के ब्लड का सैंपल संभालकर रखते हैं, जिससे मरीज को किसी तरह का रिएक्शन होने पर उसके ऑरिजिनल ब्लड की जांच की जा सके।

-सैंपल ब्लड बैंक में आ जाने पर सबसे पहले देखा जाता है कि किस ग्रुप का ब्लड चाहिए। फिर लाए गए सैंपल के ब्लड ग्रुप की जांच होती है। उसके बाद ऐंटीबॉडी स्क्रीनिंग की जाती है। अब ब्लड बैंक में मौजूद उसी ग्रुप के ब्लड से सैंपल का क्रॉस मैच होता है। पूरी तरह कंफर्म करने के लिए एक बार फिर बैंक में मौजूद खून की जांच करते हैं। फिर से दोनों तरह के ब्लड को मैच किया जाता है। इस काम में एक से डेढ़ घंटा लग सकता है। इसके बाद ब्लड इश्यू किया जाता है।

-इश्यू करते वक्त ब्लड बैग पर स्टिकर लगाया जाता है और क्रॉसमैच की रिपोर्ट भी दी जाती है। ऐसे में ब्लड बैग और फॉर्म पर लिखे डिटेल्स का मिलान कर लेना चाहिए। मसलन: मरीज का नाम, ब्लड ग्रुप व सीरियल नंबर और दूसरी सूचनाएं।

-अस्पताल में नर्स या डॉक्टर फिर से ब्लड बैग और मरीज के फॉर्म के डिटेल चेक करते हैं और ब्लड चढ़ाना शुरू कर देते हैं।

-ब्लड चढ़ जाने के बाद मरीज नॉर्मल तरीके से खाना खा सकता है, चाय व पानी पी सकता है। ठीक महसूस करे तो नहा भी सकता है।

-सरकारी ब्लड बैंकों में क्रॉस मैचिंग या टेस्टिंग के लिए 850 रुपये लिए जाते हैं। ब्लड के कंपोनेंट्स के लिए 400 रुपये चार्ज किए जाते हैं। इसमें हिपेटाइटिस बी, सी, एचआईवी, वीडीआरएल आदि संक्रामक रोगों की जांच और ब्लड बैग का खर्च भी शामिल होता है। प्राइवेट ब्लड बैंकों में अलग-अलग टेस्ट भी साथ में करते हैं, इसलिए उनके चार्जेज भी अलग-अलग हैं। इन्हें सर्विस चार्ज कहा जाता है। वहां ये चार्ज 5 हजार रुपये तक भी हो सकते हैं।

सावधानी
-बेहद जरूरी न हो, तो ब्लड चढ़वाने से बचना चाहिए।

-हमेशा लाइसेंस वाले या प्रमाणित ब्लड बैंक से ही ब्लड लें।

-ब्लड बैग पर लिखी एक्सपायरी डेट देख लें।

-ब्लड वाले बैग को साफ हाथों से छुएं।

-ब्लड ले जाते वक्त सावधानी रखें कि उसका तापमान 4 डिग्री सेल्सियस तक बना रहे। इसके लिए थर्मोकोल के बॉक्स का इस्तेमाल किया जा सकता है। ब्लड को बर्फ के साथ नहीं रखना चाहिए।

-अगर ब्लड चढ़ने में कुछ देर हो तो बैग ले जाकर अस्पताल के रेफ्रिजरेटर में रखवा देना चाहिए। चढ़ाने से पहले देख लें कि मरीज के लिए जो ब्लड लाया गया है, वही चढ़ाया जा रहा है या नहीं। इसके लिए ब्लड बैग पर लिखे डिटेल्स चेक कर लें।

-देख लेना चाहिए कि ब्लड में किसी तरह की क्लॉटिंग या जमाव तो नहीं है। कई बार बैग में प्लाज्मा ऊपर रह जाता है और रेड सेल नीचे जमा हो जाते हैं। ऐसे ब्लड को चढ़ाने लायक नहीं माना जाता। ऐसा तापमान में बदलाव आने के कारण होता है।

-आम धारणा है कि ब्लड चढ़ाने से पहले उसे कमरे के तापमान तक गर्म कर लेना चाहिए, पर विशेषज्ञों का कहना है कि ब्लड को वॉर्म करने की जरूरत नहीं होती।

-आमतौर पर ब्लड की 10 से 20 बूंदें प्रति मिनट के हिसाब से चढ़ाई जाती हैं पर मरीज की हालत के मुताबिक उसे कम-ज्यादा भी किया जा सकता है। पहले आधे घंटे निगरानी की जरूरत होती है, इसलिए ब्लड धीरे-धीरे चढ़ाया जाता है, जिससे कोई रिएक्शन होने पर तुरंत काबू पाया जा सके । ज्यादातर रिएक्शन पहले आधे घंटे में ही होते हैं। मसलन: एलर्जी, चकत्ते पड़ना, हल्का बुखार, उल्टी आना, घबराहट, कंपकंपी या जहां सुई लगी है, वहां दर्द होना। मरीज का बीपी भी कम हो सकता है।

-अगर लगे कि मरीज को कंपकंपी, बुखार या खारिश जैसी कोई शिकायत हो रही है, तो ब्लड चढ़ाना रोक दें। ऐसा ब्लड ज्यादा चढ़ाने से किडनी तक में दिक्कत हो सकती है। हटाए गए ब्लड को दोबारा नहीं चढ़ाया जाता और उसे वापस ब्लड बैंक भेजा जाता है।

-खून चढ़ाने पर कुछ संक्रामक रोग भी हो सकते हैं जैसे वायरल बुखार या हिपेटाइटिस बी, सी, मलेरिया, सिफलिस और एचआईवी आदि।

-डोनर का खून लेने के बाद उसमें इन बीमारियों की जांच ब्लड बैंक में अच्छी तरह से की जाती है, तो भी जीरो रिस्क ब्लड ट्रांसफ्यूजन संभव नहीं होता। इसीलिए जब बेहद जरूरी हो, तभी खून चढ़वाना चाहिए।

-ध्यान रखें कि मरीज को गलत ग्रुप का ब्लड न चढ़ जाए। यह जानलेवा भी हो सकता है। इसके लिए सैंपल वाली टेस्ट ट्यूबों पर ब्लड निकालने वाले ड्यूटी डॉक्टर के सिग्नेचर होने जरूरी हैं। जांच लें कि जो जानकारी लेबल पर है, वही फॉर्म पर हो।

-ब्लड चढ़ाने के साथ कोई दूसरी दवाई उस नली से नहीं चढ़ानी चाहिए। उससे रिएक्शन होने का खतरा रहता है।

-जिस पाइप से ब्लड चढ़ाया जाना है, उसमें हवा न भर जाए। ब्लड के साथ हवा भी चढ़ा दी जाए तो हार्ट अटैक हो सकता है और जान भी जा सकती है।

-जिन लोगों को बार-बार ब्लड की जरूरत पड़ती है, उनमें यह देख लेना चाहिए कि ब्लड चढ़ाने से एलर्जी तो नहीं हो रही।

ये भी जानिए
दो टाइप के बैग आते हैं। उनमें रखे गए ब्लड की एक्सपाइरी डेट या लाइफ अलग-अलग होती है। एक बैग में 35 दिन एक बैग में 42 दिन ब्लड चलता है। जिस बैग में 42 दिन चलता है उसमें एड सोल नाम का लिक्विड डाला जाता है। वह थोड़ा महंगा पड़ता है।

कौन-कौन सी जांच
जब ब्लड दिया जाता है तो उस पर लगे लेबल में लिखा रहता है कि इसकी एचआईवी, हेपटाइटिस बी-सी, वीडीआरएल और मलेरिया की जांच की गई है।

कितने दिन पहले
अगर कोई अपनी सर्जरी के लिए अपना ब्लड देना चाहता हो और उसका हीमोग्लोबिन ठीक रेंज में हो, सर्जरी भी नॉर्मल हो तो एक सप्ताह या 15 दिन पहले भी ब्लड ले सकते हैं। लेकिन अगर हीमोग्लोबिन कम हो तो एक महीना पहले लेते हैं। मूलरूप से यह देखा जाता है कि किसी का हीमोग्लोबिन किस रेंज में है और ऑपरेशन जिसके लिए ब्लड चाहिए वह किस लेवल का है।

टेस्टिंग में वक्त
ब्लड की टेस्टिंग एक दिन में हो जाती है।

कॉमन इन्फेक्शन
ब्लड चढ़वाने से एचआईवी, हेपटाइटिस-बी व सी, सिफलिस और मलेरिया आदि बीमारियां हो सकती हैं। ब्लड की जांच में इन्हें निगेटिव पाए जाने पर भी नहीं कहा जा सकता कि आगे जाकर ये बीमारियां नहीं होंगी। इस मामले में सौ प्रतिशत सेफ्टी का दावा नहीं किया जा सकता।

ब्लड की सेफ्टी
सौ प्रतिशत सेफ ब्लड का दावा कोई नहीं कर सकता। बस आप उन्हीं बैंकों से ब्लड लें, जिनके पास लाइसेंस हो।  

खून बढ़ाने के तरीके
होम्योपथी
-जब ब्लड की कमी किसी भी तरह के एनीमिया से हो रही हो, तो इनमें से एक दवा लें: फैरम मैट-30 ( Ferrum Mat) , फैरम फॉस-30 ( Ferrum Phos) , चाइना-30 (China) या फॉस्फोरस-30 ( Phosphorus )

- अगर ब्लड कैंसर, ल्यूकेमिया या मल्टिपल मायलोमा की वजह से ब्लड में कमी आ रही हो तो इनमें से कोई एक दवा लें : एक्सरे-30 ( Xray) , रेडियम ब्रॉम-30 ( Radium Brom) या काबोर्नियम सल्फ-30 ( Carboneum Sulph )

- अगर पौष्टिक भोजन की कमी से ब्लड में कमी हो रही हो तो इनमें से एक लें: आर्स. अल्बम-30 ( Ars. Album) , कल्केरिया फॉस-30 ( Calc. Phos) या फॉस्फोरिक एसिड-30 ( Phosphoric Acid )

दवा लेने का तरीका: कोई भी दवा बिना डॉक्टर की सलाह के न लें। दवा की चार से पांच गोली दिन में तीन बार लें।

नेचरोपथी
नेचरोपथी में ऐसी कई क्रियाएं हैं, जिन्हें करने से शरीर में खून की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है और बेहतर सेहत पाई जा सकती है। इनमें से खास हैं:

- 15 से 20 दिन तक रोजाना मिट्टी की पट्टी पेट पर रखें। ऐसा 20 मिनट के लिए रखना चाहिए। इसे खाली पेट करें।

-सुबह खाली पेट दो गिलास पानी पीकर कटि स्नान करें। इसके लिए पानी से भरे टब में इस तरह से बैठ जाएं कि पूरा पेट पानी में डूब जाए। ऐसा 15-20 मिनट तक रोजाना एक महीने तक करना चाहिए। टब में बैठने के दौरान पेट की हल्के हाथ से मालिश करें। बाहर निकलने के बाद ऊपर-नीचे के दांत दबाकर बाथरूम जाएं।

-मलमल के कपड़े की छह फुट की पट्टी बना लें। उसे गीला करके अपने पेट पर 10 मिनट के लिए लपेट लें। बाद में पोंछ लें। यह क्रिया खाली पेट करनी है।

-खाना खाने के बाद आधे घंटे के लिए गरम पानी की बोतल को पेट पर रखने से भोजन तुरंत पचता है। इससे खून बनता है।

-खाना खाने से पहले पैरों को जरूर धोएं। पैरों को भिगोने से लिवर का फंक्शन ठीक होने लगता है।

-इन क्रियाओं को किसी योग्य नेचरोपैथ से सीखकर ही करना चाहिए।

मुद्रा विज्ञान
प्राण मुद्रा: अंगूठा और आखिरी दोनों उंगलियों को मिलाने से बनती है प्राण मुद्रा। इस मुद्रा का अभ्यास उठते-बैठते कभी भी कर सकते हैं। इस मुद्रा लगातार अभ्यास करने से प्राणशक्ति का संचार होता है और खून बढ़ता है। एक महीने लगातार की जाए, तो शरीर की कमजोरी दूर होती है।

शक्तिवर्धिनी मुद्रा: यह सिर्फ बैठकर ही की जा सकती है। इसमें दोनों हाथों का इस्तेमाल होता है। पहले दोनों हाथों को इस तरह उलटा करें कि उंगलियों पर उंगलियां फिट बैठ जाएं। बाएं हाथ की सबसे छोटी उंगली दाएं हाथ की पहली उंगली पर आएगी। इस मुद्रा को दिनभर में अलग-अलग समय पर किया जा सकता है। कुल मिलाकर 45 मिनट तक करें। इससे कुछ ही दिनों में खून में आरबीसी, डब्ल्यूबीसी और प्लाज्मा संतुलन में आ जाते हैं।

योग
शरीर में खूनहीं बन रहा है तो इसका मतलब है कि आपका पाचन तंत्र और लिवर अपना काम ठीक से नहीं कर रहे। शरीर की धातुएं ठीक से काम नहीं कर रहीं। खून न बनने के इसके अलावा और भी कई कारण हो सकते हैं।

-अगर पाचन तंत्र में गड़बड़ी की वजह से खून न बन रहा हो तो रोजाना बहुत धीरे-धीरे 5-7 मिनट तक कपालभाति, लेटकर कटिचक्रासन, एक-एक पैर से पवनमुक्तासन, भुजंगासन व मण्डूकासन करें। इन्हें इसी क्रम से करें। इसके बाद अनुलोम-विलोम प्राणायाम व भस्त्रिका प्राणायाम धीरे-धीरे करें।

-अगर बोनमैरो में खराबी या कैंसर की वजह से खून न बन रहा हो तो 10-15 तुलसी के पत्तों का पेस्ट बनाकर रोजाना सुबह खाली पेट लें। साथ में बहुत धीरे-धीरे कपालभाति, अनुलोम-विलोम व भस्त्रिका करें।

-किसी भी वजह से खून की कमी हो, मन में सकारात्मक भाव बनाए रखें और खुश रहें। नकारात्मक भाव या नाखुश रहने से खून कम हो जाता है। पुरानी समस्याओं से बाहर निकलें। प्रकृति के करीब जाने की कोशिश करें।

सवाल-जवाब
कौन-सा ग्रुप किसे ब्लड दे सकता है और किसे नहीं?
ओ ग्रुप यूनिवर्सल डोनर है। ओ पॉजिटिव वाला सभी पॉजिटिव ग्रुप वाले लोगों को खून दे सकता है। ओ नेगेटिव वाला सभी को दे सकता है। आमतौर पर क्रॉस मैचिंग करके ही सेम ग्रुप वाले को ब्लड दिया जाता है। मैचिंग के वक्त ऐंटीबॉडीज की भी जांच कर लेते हैं। अगर कोई भी ग्रुप मैच नहीं हो रहा तो ओ नेगेटिव बेस्ट है। इमरजेंसी में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे किसी तरह का नुकसान नहीं होता।

किन बीमारियों में ब्लड लेने या चढ़ाने की जरूरत पड़ती है?
ऐसी कई बीमारियां और स्थितियां हैं जिनमें आमतौर ब्लड चढ़ाने की जरूरत पड़ ही जाती है। इनमें से कुछ खास बीमारियां और स्थितियां इस तरह हैं: एक्सिडेंट के मामले, डिलिवरी संबंधी केस, किसी भी तरह की ब्लीडिंग, सभी बड़े ऑपरेशन, ऑर्गन या हिप ट्रांसप्लांटेशन, थैलीसिमिया, एप्लास्टिक एनीमिया, कैंसर के इलाज या कीमोथेरेपी के वक्त, डायलिसिस, हीमोफीलिया और संबंधित रोगों में, डेंगू, प्लेटलेट्स और प्लाज्मा के रेड सेल्स की कमी होने और डब्ल्यूबीसी के रूप में। इसके अलावा और भी बहुत-सी बीमारियां हैं जिनमें ब्लड चढ़ाने की जरूरत पड़ती है।

क्या अपने लिए अपना ब्लड यूज कर सकते हैं?
हां, ऐसा मुमकिन है। कोई शख्स अगर चाहे तो अपनी सर्जरी में अपना ही खून इस्तेमाल कर सकता है। पहले से तय ऑपरेशनों और सर्जरी के मामलों में कोई शख्स सर्जरी से चार-पांच दिन पहले ब्लड बैंक जाकर अपना ब्लड जमा करवा सकता है। इसके बाद ऑपरेशन के दौरान वह खून उसके काम आ सकता है। ऐसा अक्सर आसानी से न मिलने वाले नेगेटिव ग्रुप के ब्लड वाले मामलों में किया जा सकता है।

क्या-क्या चेक करते हैं ब्लड में?
जब डोनर से ब्लड लिया जाता है, तो उसकी नीचे लिखी जांच की जाती हैं:
-एचआईवी-1 और 2

-हिपेटाइटिस बी व सी

-वीडीआरएल

-मलेरिया आदि

जब उसे मरीज के लिए तैयार किया जाता है, तो उसकी क्रॉस मैचिंग मरीज के सैंपल के साथ की जाती है। मरीज को देते वक्त ब्लड में इन संक्रामक रोगों की जांच नहीं होती है।

ब्लड बढ़ता किन चीजों से है?
खून की मात्रा बढ़ाने में हेल्दी लाइफस्टाइल का बड़ा योगदान है। ऐसे तमाम नुस्खे और दवाएं हैं जिनसे शरीर में खून की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है। सबसे अहम बात यह है कि खाना ऐसा खाना चाहिए जिसमें आयरन की मात्रा ज्यादा हो जैसे हरी पत्तेदार सब्जियां, चना, गुड़, फल व अंडे आदि। दरअसल, अंडों में फोलिक एसिड भरपूर मात्रा में होता है। फोलिक एसिड का ब्लड बढ़ाने में काफी योगदान है।

ब्लड कम किन वजहों से होता है?
ऐसी तमाम वजहें हैं, जिनसे किसी इंसान के शरीर में खून की मात्रा कम हो जाती है:

-ब्लीडिंग जैसे बवासीर, गैस्ट्रिक अल्सर आदि।

-कई बार अंदरूनी तौर पर ब्लीडिंग होती रहती है और मरीज को पता ही नहीं चलता। ऐसे में वह एनीमिया से ग्रस्त हो जाता है।

-कई मामलों में अच्छा पौष्टिक भोजन न लेने से भी शरीर के अंदर ब्लड कम बनता है। दरअसल, गलत खानपान की वजह से आंतों की आयरन ग्रहण करने की क्षमता कम हो जाती है और एनीमिया हो जाता है।

क्या ब्लड चढ़वाने से बचा भी जा सकता है?
कई स्थितियों में ब्लड चढ़वाने से बचा भी जा सकता है। अगर किसी शख्स को एनीमिया या कमजोरी है तो वह ब्लड न ही चढ़वाए तो ही ठीक है। ऐसे लोगों को चाहिए कि वे अपना एचबी यानी हीमोग्लोबिन बिना ब्लड चढ़वाए दूसरे तरीकों से चढ़ाने की कोशिश करें। अगर किसी को किसी तरीके की ब्लीडिंग हो रही है तो सबसे पहले उस ब्लीडिंग को रोकने की कोशिश करें।
 


ग्लूकोमा से आँखों को बचाए, कैसे?

NAV BHARAT TIMES के अनुसार 

आप भी सावधान होकर इससे सीख ले और बचे, समय से इलाज कराये.
छुपकर नजर छीनता है ग्लूकोमा
13 Mar 2011, 1021 hrs IST,नवभारत टाइम्स

यह मर्ज छुपकर वार करता है। मरीज को पता तब चलता है जब उसका इतना नुकसान हो चुका होता है, जिसकी भरपाई नामुमकिन है, लेकिन अगर थोड़ा चौकस रहें तो वक्त रहते इस मर्ज को न सिर्फ पकड़ा जा सकता है, बल्कि बढ़ने से भी रोका जा सकता है। बात हो रही है ग्लूकोमा या काला मोतिया की, जिसके बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए बीते हफ्ते ग्लूकोमा अवेयरनेस वीक मनाया गया। एक्सपर्ट्स की मदद से ग्लूकोमा के बारे में विस्तृत जानकारी दे रहे हैं प्रभात गौड़ :  
क्या होता है ग्लूकोमा ?
ग्लूकोमा को आम भाषा में काला मोतिया भी कहा जाता है। ग्लूकोमा को समझने के लिए पहले आंख से जुड़ी एक बेसिक जानकारी। हमारी आंख एक गुब्बारे की तरह होती है जिसके भीतर एक तरल पदार्थ भरा होता है। आंख की मेकनिजम यह है कि यह तरल पदार्थ लगातार आंख के अंदर बनता रहता है और उससे बाहर निकाला जाता रहता है। आंख के इस तरल पदार्थ के पैदा होने और बाहर निकलने के इस प्रोसेस में जब कभी दिक्कत आती है तो आंख का प्रेशर बढ़ जाता है। आंख में कुछ ऑप्टिक नर्व भी होती हैं जिनकी मदद से किसी ऑब्जेक्ट के बारे में संकेत दिमाग को भेजे जाते हैं। आंख का बढ़ा प्रेशर इन ऑप्टिक को डैमेज करने लगता है और धीरे-धीरे नजर कमजोर होती जाती है। आंख के बढ़े हुए प्रेशर का मतलब यह कतई नहीं है कि उस शख्स को ग्लूकोमा हो गया, लेकिन इससे ग्लूकोमा हो जाने का खतरा बढ़ जाता है।

ग्लूकोमा के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके चलते नजर का जो नुकसान हो गया, उसका कोई इलाज नहीं है। अगर पता न चले तो यह मर्ज धीरे धीरे बढ़ता रहता है और ज्यादा बढ़ जाने पर अंधेपन की भी नौबत आ सकती है। हां, अगर इसका पता वक्त रहते चल जाए तो आगे और नुकसान से बचने के लिए इलाज और देखभाल की जा सकती है। 
कितनी तरह ग्लूकोमा?
ओपन ऐंगल ग्लूकोमा: जब कभी आंख के बढ़े प्रेशर के चलते आंख की ऑप्टिक नर्व खराब हो जाती है और उसके चलते नजर खराब होती है तो उसे ओपन ऐंगल ग्लूकोमा कहा जाता है। यह क्रॉनिक है। धीरे धीरे नजर कमजोर होती जाती है। सबसे ज्यादा कॉमन है। इसमें तरल पदार्थ को ड्रेन करने वाली कनैल ब्लॉक हो जाती है जिससे आंख का प्रेशर बढ़ जाता है।

ऐंगल क्लोजर ग्लूकोमा: यह अक्यूट होता है। इसका अचानक अटैक होता है और मरीज को पता चलता है कि उसकी नजर कमजोर हो चुकी है। अटैक के बाद तेज दर्द होता है।

लक्षण
ओपन ऐंगल ग्लूकोमा के मोटे तौर पर कोई लक्षण नहीं होते। इसमें कोई दर्द नहीं होता और न ही नजर में कोई कमी महसूस होती है। अगर ग्लूकोमा का इलाज न किया जाए तो लोगों को अपने साइड की वस्तुओं को देखने में दिक्कत होने लगती है। ग्लूकोमा में काफी समय बाद तक सेंट्रल विजन को कोई नुकसान नहीं होता। इसमें नुकसान होता है साइड विजन को और धीरे-धीरे यह सेंट्रल विजन की तरफ आता जाता है। जब सेंट्रल विजन प्रभावित होने लगती है तो इसका मतलब है कि देर काफी हो चुकी है। ग्लूकोमा के कुछ शुरुआती लक्षण ये हो सकते हैं :

- चश्मे के नंबर में बार-बार बदलाव।
- पूरे दिन के काम के बाद शाम को आंख में या सिर में दर्द होना।
- बल्ब के चारों तरफ इंद्रधनुषी रंग दिखाई देना।
- अंधेरे कमरे में आने पर चीजों पर फोकस करने में परेशानी होना।
- साइड विजन को नुकसान होना। बाकी विजन नॉर्मल बनी रहती हैं।

किसे हो सकता है
- अगर किसी के परिवार में किसी को ग्लूकोमा रहा है, तो उसे ग्लूकोमा होने के चांस हो सकते हैं। यह आनुवांशिक मर्ज है।

- 40 साल की उम्र के बाद ग्लूकोमा होने के चांस बढ़ जाते हैं। 40 की उम्र के बाद आंखों का रेग्युलर चेकअप कराते रहें। हो सकता है इस उम्र के लोगों को लगे कि उनकी नजर मोतियाबिंद की वजह से कमजोर हो रही है, लेकिन हो सकता है कि नजर की कमजोरी ग्लूकोमा की वजह से हो। ऐसे में सलाह यह है कि 40 की उम्र के बाद आंखों का रुटीन चेकअप कराते रहें।

- जो लोग अस्थमा या आर्थराइटिस जैसे रोगों के लिए काफी लंबे समय तक स्टेरॉयड ले रहे हैं, उन्हें ग्लूकोमा होने की आशंका बढ़ जाती है।

- कभी आंख का कोई जख्म हुआ हो या कोई सर्जरी हुई हो, तो भी ग्लूकोमा होने की आशंका बढ़ती है।

- जिन लोगों को मायोपिया है, डायबीटीज है या ब्लडप्रेशर घटता-बढ़ता रहता है, उनमें दूसरे लोगों के मुकाबले ग्लूकोमा से होने वाला नुकसान ज्यादा हो सकता है।

- यह बच्चों में भी हो सकता है।

कैसे पता लगाते हैं
प्रेशर: ग्लूकोमा की जांच के लिए सबसे पहले आंख का प्रेशर चेक किया जाता है। प्रेशर अलग-अलग लोगों में अलग-अलग हो सकता है। ऐसा नहीं कह सकते कि इतना प्रेशर नॉर्मल है। किसी में कुछ नॉर्मल हो सकता है तो किसी में कुछ। वैसे, 12 से 22 के बीच नॉर्मल माना जाता है, लेकिन यह कोई नियम नहीं है। अगर आंख का प्रेशर बढ़ा हुआ है, तो फिर नीचे दिए गए चार टेस्ट किए जाते हैं।

गोनियोस्कोपी: इस टेस्ट में आंख का ऐंगल चेक करने के लिए टेस्ट किया जाता है।
फील्ड चार्टिंग: यह टेस्ट आंख की फील्ड ऑफ विजन चेक करने के लिए होता है।
एचआरटी: हाइडलबर्ग रेटिना टोमोग्रफी टेस्ट में ऑप्टिक नर्व की पिक्चर ले ली जाती है। इससे ग्लूकोमा के बारे में जल्दी भविष्यवाणी की जा सकती है।

कॉर्निया की मोटाई: कॉर्निया की मोटाई भी चेक की जाती है। कुछ लोगों में कॉर्निया पतली हो सकती है। ऐसे लोगों को ग्लूकोमा होने की आशंका ज्यादा होती है। कॉर्निया पतली हो, तो प्रेशर भी कम आता है और मोटी हो तो प्रेशर ज्यादा आता है। इस प्रेशर को मोटाई के हिसाब से मॉडिफाई करके असली प्रेशर निकाला जाता है।

आमतौर पर इन टेस्टों में कुल मिलाकर पांच हजार रुपये का खर्च आता है।

इलाज क्या है

अलोपथी में इलाज
ग्लूकोमा की वजह से हो चुके नुकसान और नजर की कमी को वापस नहीं लाया जा सकता है। इसका कोई इलाज नहीं है। जो नुकसान हो गया, वह हो गया। ऐसे में इलाज सिर्फ इस बात के लिए किया जाता है कि आगे कोई नुकसान न हो। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका इलाज जिंदगी भर चलता है। इसमें सबसे पहला काम यह किया जाता है कि आंख के प्रेशर को कम कर दिया जाए। आंख के प्रेशर को कम करने के लिए डॉक्टर मरीज को आई-ड्रॉप्स डालने की सलाह देते हैं।

मरीज की स्थिति के मुताबिक हो सकता है एक से ज्यादा आई-ड्रॉप्स डालने को कहा जाए। कई बार इसके साथ कुछ खाने की दवाएं भी दी जाती हैं। जब तक डॉक्टर कहे, दवा लेते रहना चाहिए और लगातार आंखों की जांच कराते रहना चाहिए। एक बार ग्लूकोमा होने पर हर छह महीने या एक साल पर आंखों की जांच करानी चाहिए, जिससे पता चलता रहे कि ट्रीटमेंट सही चल रहा है या नहीं। कुछ डॉक्टर हर तीन महीने बाद भी चेकअप कराने की सलाह देते हैं। रेग्युलर चेकअप कराने आते वक्त डॉक्टर ग्लूकोमा का पता लगाने के लिए किए गए टेस्टों में से आमतौर पर दो टेस्ट ही करते हैं।

कई बार ऐसा भी होता है कि दवा से बात नहीं बनती। कभी दवा के साइड इफेक्ट्स होने लगते हैं तो कभी दवा महंगी हो सकती है या फिर मरीज ही दवा से छुटकारा पाना चाह सकता है। ऐसे में डॉक्टर लेसर ट्रीटमेंट या ऑपरेशन कराने की सलाह देते हैं।

ऐंगल क्लोजर: इसका इलाज सबसे आसान है। शुरुआत में दवाई देते हैं, लेकिन दवाओं से नजर कम होती जाती है। बाद में लेसर सर्जरी की जाती है। इसमें एक आंख की सर्जरी का खर्च आमतौर पर तीन हजार रुपए आता है। रिस्क की कोई गुंजाइश नहीं है, पूरी तरह सेफ है। लेसर ट्रीटमेंट के बाद भी मरीज को रेग्युलर चेकअप के लिए जाना पड़ता है और यह चेक कराते रहना होता है कि कहीं ग्लूकोमा दोबारा तो डिवेलप नहीं हो रहा है।

ओपन ऐंगल: दवाओं से बात न बने या मरीज उकता जाए तो डॉक्टर ऑपरेशन की सलाह देते हैं। यह एक बड़ा ऑपरेशन होता है। इसमें 15 से 20 हजार रुपए का खर्च आता है। ऑपरेशन के हफ्ते भर बाद आंख नॉर्मल हो जाती है। रिस्क कोई नहीं होता। इस ऑपरेशन के बाद भी रेगुलर चेकअप कराते रहना चाहिए। 


 होम्योपथी
होम्योपथी में हालांकि ऐसे दावे भी किए जाते हैं कि ग्लूकोमा की वजह से नजर का जो नुकसान हो गया है, उसकी भरपाई की जा सकती है, लेकिन ऐसे मामले बेहद कम हैं। आमतौर पर विशेषज्ञों का मानना यही है कि ग्लूकोमा की वजह से एक बार हो चुके नुकसान को ठीक करना बेहद मुश्किल है।

हां, दवाओं के जरिए आगे होने वाले नुकसान को रोका जा सकता है और इसके अच्छे रिजल्ट्स सामने आए हैं। वैसे, खुद होम्योपैथिक डॉक्टरों का कहना है कि अगर होम्योपथिक ट्रीटमेंट चला रहे हैं तो भी किसी नेत्र रोग विशेषज्ञ से रेगुलर चेकअप कराते रहना जरूरी है, जिससे ठीक तरह यह पता चलता रहे कि मर्ज की असल स्थिति क्या है। नीचे कुछ दवाएं दी जा रही हैं, जो ग्लूकोमा के मरीजों को दी जाती हैं, लेकिन इन्हें किसी डॉक्टर की देख-रेख में ही लेना चाहिए।

Osmium Mettalicum 30 (ओसमियम मेटलिकम) : अगर मरीज को दोनों ही आंखों में ग्लूकोमा है, दोनों आंखों में तेज दर्द की शिकायत रहती है और रोशनी अच्छी नहीं लगती तो इस दवा को दिया जाता है। इसकी चार से पांच गोलियां दिन में तीन बार लेनी चाहिए और ऐसा तीन से चार महीने तक करना चाहिए। गोलियों का साइज 30 हो।

Physostigma 30 (फाइसोस्टिगमा) : अगर ग्लूकोमा दोनों आंखों में है और आंखों में भारीपन महसूस होता है पलकें खोलने में दिक्कत होती है या पानी आता है तो इस दवा को दिया जाता है। चार से पांच गोली दिन में तीन बार तीन से चार महीने तक दें।

Spigelia 30 (स्पाइजेलिया) : अगर ग्लूकोमा बाईं आंख में है या बाईं आंख में पहले आया है और माइग्रेन की भी हिस्ट्री रही है तो इस दवा की चार से पांच गोली रोजाना दिन में तीन बार देनी चाहिए।

Glonine 30 (ग्लोनाइन) : ग्लूकोमा के साथ-साथ अगर बढ़ा हुआ बीपी है, सूरज की रोशनी सहन नहीं होती, सिरदर्द के साथ उलटी भी होती है, तो ग्लूकोमा के इलाज के लिए इस दवा को दिया जाता है। लेने का तरीका वही है, चार से पांच गोली दिन में तीन बार।

आयुर्वेद
आयुर्वेद में काला मोतिया के इलाज के लिए सर्जरी की ही बात कही गई है, लेकिन कुछ तरीकों को अपनाया जाए तो इससे आगे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। आयुर्वेद के ये तरीके नेत्र रोग विशेषज्ञ की देखरेख में इलाज कराने के साथ-साथ ही किए जा सकते हैं।

- सुबह जागने के बाद मुंह में ठंडा पानी भरकर आंखों पर ठंडे पानी के छपाके मारें।

- एक चम्मच त्रिफला चूर्ण, आधा चम्मच देसी घी और एक चम्मच शहद मिला लें। जिन लोगों को काला मोतिया नहीं भी है, वे भी इसे ले सकते हैं। इससे आंखों के कई दूसरे रोगों में भी फायदा मिलता है।

- एक चम्मच घी, दो काली मिर्च और थोड़ी सी मिश्री मिलाकर दिन में तीन बार ले सकते हैं।

- गाजर, संतरे, दूध और घी का भरपूर इस्तेमाल करें।

कुछ तथ्य
- दुनिया भर में 10 में से 1 आदमी ग्लूकोमा से पीडि़त है। दुनिया भर में करीब साढ़े छह करोड़ लोगों को ग्लूकोमा है।

- भारत में एक करोड़ से ज्यादा लोगों को ग्लूकोमा है। इनमें से करीब 10 लाख लोग अंधेपन का शिकार हो चुके हैं।

- भारत में अंधेपन के 100 में से 12 केस ग्लूकोमा की वजह से हैं।